क्यूँ कोई साथ दे मेरा ,इन ऊबड़ खाबड़ राहों में
क्यूँ कोई थामे मेरा तपता मन ,अपनी बाहों में
सीधी सरल सड़क से
ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर मैं खुद अपनी मर्ज़ी से आयी
तो फिर इन राहों के पत्थरों की क्यूँ देती फिरूँ दुहाई?
खुद ही इन पत्थरों को तोड़ तोड़ कर,एक छोटी सी पगडंडी बनानी होगी
फिर बाकी लोगों को भी इस पगडंडी की, राह दिखानी होगी।
पर, पगडण्डी बनाते समय
उन लोगों के सहयोग के लिए बार बार हाथ क्यूँ फ़ैलाऊँ
मेरे ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर बार बार, किसी की उम्मीद में क्यूँ रूक जाऊँ?
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