आज फिर उन लम्हों में खोकर,
शायद खुद की पहचान भुला बैठा हूँ
जो बंद आंखों से न दिख सके,
उसे खुली आंखों से ढूढ़ता बैठा हूँ
हज़ारों चेहरे आंखों के सामने है मगर,
फिर क्यों उसी चेहरे को अपनी ज़िन्दगी बना बैठा हूँ
और हर क़िस्म के इलाज़ है वैसे तो इस दुनिया में,
फिर क्यों सिर्फ उन्हें ही, अपने मर्ज की दवा बना बैठा हूँ
आज फिर उन लम्हों में खोकर,
शायद खुद की पहचान भुला बैठा हूँ
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