इस पेट के भूख ने, बचपन जला दिया।
सपनों को आंखों से चुरा, नींदों में बुझा दिया।
थमा दी जिम्मेदारियों का बोझ सर पे,
और हाथों में मेहनत का फंदा फसा दिया।
आंखे भर लेती नमकीन पानी ख़ुद में,
माथे पे गरीबी ने जो धब्बा लगा दिया।
कहां होती अब आहटें खुशियों की दरवाजे पे,
रास्तों ने ख़ुद को जो आशियाना बना दिया।
इस पेट के भूख ने, बचपन जला दिया।
सपनों को आंखों से चुरा, नींदों में बुझा दिया...
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