सड़क किनारे पलते है कई सपने,
घर बार छोड़ कर रहते हैं कई अपने,
जब भी देखता हु फुटपाथ पे सोता उन्हे,
आंख भर आता हैं, दिल बैठ जाता है,
जो महलों के ऐसों आराम से दूर,
सपने सजाने बैठे हैं अपने घरों से दूर।।
जो कमाने गांव से शहर आए थे,
इस चकाचौध सी दुनिया में,
जहा ना कोई अपना है ना कोई ठिकाना,
ना दो वक्त की रोटी है, ना ही सर पे छत,
क्यूं है ये दुनिया इतनी बेरहम,
क्या नही दिखते किसी को इनके जख्म।।
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