इश्क़ की एवज़ में दिल पर अज़ाब बहुत हुए,
हर एक आँसू पर चढ़ने वाले नक़ाब बहुत हुए।
यकीं कैसे दिलाऊँ मर चुका हूँ उसके बग़ैर,
महफ़िल-ए-वफ़ा में रोज़ हम ख़राब बहुत हुए।
हलक से लुआब दिल से धड़कनें गायब हैं,
अरसे से इन आँखों में अधूरे ख़्वाब बहुत हुए।
नज़रें इजाज़त देती नहीं ग़ैरों के दीदार को,
इल्ज़ाम तमाम मुझ पर नायाब बहुत हुए।
बेरुख़ी के नश्तरों से नासूर ताज़ा होते रहे,
निशां मेरे लबों पर शराब-ए-नाब बहुत हुए।
सहर मेरी बेआब है उनकी ग़ैर-हाज़री से पर,
रौशन करने उनका शहर आफ़ताब बहुत हुए।
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