वो शायर तन्हा होते हैं जो नज़्म अधूरी लिखते हैं कुछ कच्चा रेशम छोड़ते हैं किसी और सिरे में बुनने को वो अक़्सर चुप ही रहते हैं कोई नई कहानी सुनने को वो कहते हैं ये मुमक़िन है कहीं और ख़तम हो ये किस्सा वो कहते हैं ये मुमकिन है दे दें सबको सबका हिस्सा वो एक मुकम्मल ख़ाम सा जो सच से भी ज्यादा कमसिन है वो नज़्म अधूरे वक़्फे सी मुमकिन हो, ऐसा मुमकिन है
यूँ एक टक ख़ाली दीवार ताकना पूछने पर बिन पलक झपकाए 'कुछ नहीं' कह देना इन बेसबब शिकवों से परे मालूम तुमको भी है कोरे काग़ज़ में वैसे भी गुंजाइशें तमाम होती हैं
मैं तुम्हारा देर रात का वो ख़याल हूँ जो तुम्हें रोज़ जगाता है तुम चौंक कर उठते हो और “शुक्र है, एक ख़्वाब ही था” सोच कर फिर सो जाते हो अब ये तो तुम ही जानो कि मैं एक बुरा ख़्वाब हूँ या कुछ खो जाने का डर
बीतते साल की छुट्टियों में फ़साना कोई नया लिखूंगा कुछ अजनबी बच्चों के बीच किताबें और कलम रखूंगा नई कहानियां उग रही है नन्ही शाखों में हर कहीं हमें मौत में भी ज़िंदा रखे, कुछ ऐसे किरदार लिखूंगा