नफरतों की आग से मनाए हुए जश्न में डूबे इस शहर में हरे व भगवा कपड़ो पर पड़े चटख खूनी रंग केधब्बे कुछ यूं थे कि किसी ने गुब्बारों में रंग भर के बड़ी शिद्दत से अपने काम को बिना थके अंजाम दिया हो।पर ये समझ से परे था कि लोग खूनी रंग किस दुकान से खरीदकर लाये थे,मैं तो हर होली में ढूढ़ता हूँ पर सिवायअसफलता की थैलियों के कुछ हाथ नहीं लगता।मैं इंतजार कर रहा था थक कर सो गए उन लोगों के जगने का जो मुझे उस खूनी दुकान का पता दे सकें जो थोक के भाव खूनी रंग बेचती फिरती है।उनकी थकावट का आलम कुछ यूं था कि वो अपने चप्पल भी सलीके से रखने को ,दूसरे की राह देख रहे थे। मैं घण्टों तक इंतजार करता रहा पर न जाने उन लोगों ने कैसी मज़हबीभांग पी रखी थी कि उठना तो दूर उंगलियां भी बेजान पत्थर सी पड़ी थी। उनमें सिर्फ हरे और भगवा होते तो भी ठीक था उस भींड़ में और भी कई रंग सिमटे हुए से नजर आते थे।अचानक से एक बैशाखी पर टँगा बुजुर्ग , जिसकी मूंछों से वो खूनी रंग कुछ यूं टपक रहा था कि उसने अभी अभी खूनी शेक पिया हो, ने मुझे पकड़ के नीचे खींचा तो मेरे कान के बगल से कुछ शां..करता हुआ गुजरा,शायद खूनी दुकानदार छिपकर पिचकारियां मार रहे होंगे। इतने में खद्दरधारी एक साहेब आये और सब शांत हो गया ,वो खूनी रंग के डीलर मालूम होते थे। पहले सोचा वो गूंगे होंगे ,फिर लगा नहीं बस आज के दिन मौन इनके होठों पर नृत्य कर रहा होगा।
(Rest In caption)
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