जचे विकराल रूप भयानक जचे रूप मनहर में,
जचे है भस्म सर्प चंदा जचे कैलाशी बाघंबर में।
जटाओं में सजी है गंगा ,त्रिशूल सदैव रहे कर में,
तेज़ मुख पर उतना जितना साथ सौ दिनकर में।
रीझे आक धतुर श्रीफल पर पिए भांग खप्पर में,
भाव शिव का रहे एक सा दरिद्र धनी के अंतर में।
महाकाल बन रहे उज्जैन,रहे ऊंचे कैलाश सुंदर में,
रहे वहाँ जहाँ मिले प्रेम-भक्ति महल बना ले खंडर में।
बसे शिव में है सब इकाई,हर शून्य बसे शंकर में,
बसे जीवन,मरण हर श्वास में, बसे कण कंकर में।
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