एक स्त्री
यमुना तट पर विचरण करती है
वृन्दावन के वनों में भटकती है
सुरों के बिखरे मोती पिरोती है
उस बाँसुरी धुन का इन्तेजार करती है
एक स्त्री
जिसका यौवन भी ढल चुका है
प्रेम अमृत के प्यास में बैठी है
विरह की अग्नि में जलते जलते
जो पिया मिलन के आस में बैठी है
एक स्त्री
जिसके कानों में प्रेमी का गीत है
जिसके आँखों मे प्रेमी का चित्र है
सबकुछ होकर कुछ नहीं है यहाँ
हाँ, स्वयं उसका प्रेमी ही नहीं है जहाँ
एक स्त्री
कृष्ण सुर में जो प्रियसी कहलायी
जो प्रेम में घुलकर प्रेमिका कहलायी
विरह अग्नि में तप विराहिनी कहलायी
हाँ, संसार में वो ही स्त्री राधिका कहलायी
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