जीना नहीं आया जबतक तुमने ना सिखाया माँ
मछली की तरह मैं समन्दर में तैरतीं रही
टकराई तो वो तेरा आँचल था माँ
छोटी थी मैं और पर भी मेरे कमज़ोर से थे
जबतक तुमने उड़ना ना सिखाया था माँ
रात दिन मेरी परवाह जिसने की
अपने हाथो का स्वाद जिसने चखाया
होने का अहसास और रात की चाँदनी में वो चैन की नींद
अपनो से मुलाक़ात का ज़रिया, रंगो की भाषा की पहचान
सब तुम्हीं से है माँ ।
रिया खन्ना
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