गलियों में अकेले चलते चलते,
उस रात मैंने एक डरावना सपना देखा था;
कहीं कोई पीछे से आया,
और जकड़ कर बाहों में, एक चुभन छोड़ गया।
मेरे मन के किसी कोने में हाहाकार हुआ था,
उस रात, मेरा बलात्कार हुआ था।
घूरते हुए नयन मेरे तन को,
उस रात मैंने बेशर्मी की हदें देखी थीं;
मेरी जाँघों से होते हुए,
वो हाथ मेरे सीने तक आ पहुँचे।
मेरे वक्षों का दोनों हाथों से सत्कार हुआ था,
उस रात, मेरा बलात्कार हुआ था।
(( पूर्ण कविता कैप्शन में ))
-