बचपन
वो बचपन मेरा तारा सा था ,
रोना-हंसना जैसे एक गुब्बारा सा था ,
वैसे तो पसंद थी मुझे बहुत चीजें
पर नटखट के सिवा कुछ प्यारा ना था,
वो लुक्का-छुपी और लड़ना ही आता था,
छत-गली में मस्ती वो खुला आसमान भी हमे बुलाता था ,
चंचल रहता था मन देखो हर खिलौना हमे भाता था,
ज्यादा खाना भी कहाँ बस दूध से पूरा दिन बीत जाता था,
सपने थे ना जाने कितने कभी डॉक्टर तो कभी टीचर बन जाती थी ,
तो कभी बैठ बाबा की साइकिल पर, मैं शहर घूम कर आती थी ,
गर्मी की छुट्टी में नानी-बुआ केे रहने भी जाती थी,
काम केे चोर हम भाई-बहन शोक से बहाने बनाते थे,
और पूरा दिन महफ़िल ज़माने कहीं भी बैठ जाते थे,
रात में थोड़ी आवाज होते ही भाग कर माँ के आंचल में छिप जाती थी,
सुबह पापा केे साथ बातों में और रात में तोता-मैना-चिड़िया उड़ाती थी,
और जब कभी आती थी बारिश तो कागज की नाव खूब लुभाती थी ,
वो दिन अब एक कहानी में समा गए ,
इस भिड़ में ऐसे फंसे हम अपने आप को भी भूला गए ,
जब याद आई बचपन की तो अपने आप आँखों में आशू आ गए,
फिर दिल मुस्कुराकर कहता है चंद पंक्ति में बचपन भी बीत गया!
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