उन्होंने केह दिया और हमने मान लिया,
हम क्या हैं,हमने ना जाना था, उनकी नज़रो ने यूँ ही पहचान लिया,
मोहब्बत् है उनसे हमें, हम दोनों ने जान लिया,
दिल की सारे बाते इशारों में हो गयीं,
ना वो कुछ बोले न हमने कुछ कहा,
बावज़ूद इसके, ना राज़ कोई दरमियाँ रहा,
वो जुम्बिश-ए-लब से हमें तड़पाते रहे,
हम भी चुप्पी साधे उनको तकते रहे,
बोसा जो मिल जाता तो मुकाम फिर न बाकी कोई रहता,
बदल गए हैं ज़माने ग़ालिब शायद,
हर्फ़ दर हर्फ़ केह कर बतलाना होता है,
जो लफ़्ज़ों तक ना आती थी आरज़ू,
आज उन हसरतो में हासिल करने का मुकाम सा उनको दिखता है,
इन मुकामो को पूरा करते, वो इश्क़ ना मुझमे, ना बाकी उनमे बचता है,
मोहब्बत फिर समझा जा ए ग़ालिब हमको,
यहाँ एहसास महंगे हो चले, मैली हसरतो का मुकाम सस्ता है..
-आशुतोष / آشوتوش
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