एक रोज़ मिलूँगा तुमसे
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एक रोज़ मिलूँगा उस रोज़ पूछूँगा
कि कैसा लगता है किसी को ज़िन्दगी की शक्ल में मौत देकर?
कैसा लगता है किसी से उसका सबकुछ लेकर
कैसा लगता है, धीरे से किसी की सांसे चुरा लेने में?
कैसा लगता है बिन मांगे सब कुछ ले लेने में?
याद तो होगा ना? वो वादा
वही जिसके मुताबिक़ मैं और तुम 'हम' थे
वो सारे ख़्वाब जो दिखाती थी तुम हर रोज़
साथ रहना, लड़ना-झगड़ना और फ़िर मना लेना
बताना है तुम्हें कि तुम थी हर बार ग़लत और सही हम थे
बस जिस रोज़ हम मिलें, नज़रें न चुराना
क्यों कि! इससे हमें यकीन हो जाएगा तुम्हारे जवाबों पर
एक रोज़ मिलूँगा तुमसे,
क्यों कि! हर रोज़ हम मिलें ऐसे हालात नहीं हैं
©कहानीकार
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