उख्ता के ज़िंदगी से खुद को देकर आया था वो कभी,
आखिर अब खुदा से ही मांगना सीख रहा था।
चुप्पी को समझा वो नादान उसकी बेवक़ूफी था ,
क्या पता उसे वो ख़ामोशी का हुनर सीख रहा था।
नजरअंदाज कर गलतियों को उससे हुई थी,
वो देख के मुश्किलों को तहज़ीब भूल रहा था।
देख के उस खिलते फूल को सब खुश हो रहे थे,
हां, मगर उस फूल का दरख़्त सूख रहा था।
रटकर कुछ किताबें वो बद्तमीज़ी को बहस कह गया,
बेख़बर बेअदब वो अपना ही लेहज़ा भूल रहा था।
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