जर्र-जर्र की आवाज़ करते इतनी धीमी चलती है छत से लटकती ये पंखा, जैसे मायूसीयों की उँगली थामे चल रही हो ज़िंदगी मेरी..!
खिड़कियों से बाहर जब देखता हूँ, दिखती है इन अंधेरों भरी उजालों में सिर्फ रौशनी की रिक्तियाँ, जैसे बिन-तुम अब रिक्त हो ज़िंदगी मेरी..!
ऐसा महसूस होता है फर्श की इन दाग-धब्बों को देख, जैसे जमाने के उन तानों की छीटों से भरा था ये चरित्र मेरा, जब छोड़ मुझे यूँ ही चली गई थी तुम..!
देखता हूँ जब दीवारों की इन दरारों में लटकती बालुओं की ये निशान, याद आतें है जमाने की वो कुरीतियाँ जिसे हम-तुम अब इस जनम मिटाने से रहें..!
कितना कुछ हैं इसमें मेरे जीवन के पर्याय जैसा, सुनो, मुझे बुरा लगता है जब लोग इसे "पुराना मकान" कहते हैं..!
-