खुरदुरे से काग़ज़ पर झूठ की पैरोकारी है
अख़बार तो नाम का है, काम सरकारी है,
हर पन्ने में छायी होती है सुर्ख़ीयां मज़हबी
कभी यह भी लिखो किस पेट में चिंगारी है,
सुनता कुछ, लिखता कुछ, पढ़ता कुछ है
ये पत्रकार मजबूर है, या क़लम बेचारी है,
कोई हक़ीम हो जो हर क़लम को शिफ़ा दे
और हर वह क़लम दफ़्न हो जो दरबारी है,
कुछ तो यहां दोहरे ओहदों पर बैठे हुए हैं
और ज़्यादातर के हक़ में अभी बेकारी है,
कहीं फ़ाक़ा मज़बूरी, कहीं ईमान से रोज़ा
कोरे दस्तरख़्वान पर इफ़्तार की तैयारी है,
चेहरा बदलने का हुनर तुम को नहीं आता
आमिर यह तुम्हारी बेकार सी फ़नकारी है !!
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