** नदी. **
पर्वत की गोद से निकल कर, निश्छल बहती जाती है
लोगों के मैल को धोकर फिर निर्मल हो जाती है।
खेतों खलिहानों में बह कर फसलों को लहराती है
जहां नहीं बहती वो जमीन बंजर हो जाती है।
ना जाने कितने ही पत्थरों पठारों से टकराती है
अपनी मर्यादा ना खोती है बस अपनी मौज में बहती जाती है।
सूखी पड़ी बंजर धरती को अपने रंग रंग जाती है
बारिश बन कर बरस बरस कर धरा की प्यास बुझाती है।
जो टकराते है उससे, मार्ग से अपने हटाती है
जो कोमल हृदय वाले होते है उनसे चुपचाप गुजर जाती है।
निज स्वार्थ को भूल कर परहित ये निभाती है
छेड़ छाड़ जो करी किसी ने भीषड़ विध्वंश मचाती है।
अपने कर्तव्य निभा कर दरिया में मिल जाती है
लक्ष्यों को पूरा कर के खुद ही लक्ष्य बन जाती है।।
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