उन्होंने बयाँ किया, कुछ अल्फ़ाज़ों को अपने....
पहले तो लगा कि शायद , मै देख रही हूँ सपने....
क्यूँ ना इनकी बातों को , इस दिल को समझाया जाए...
माना कि ना देखा तुझे, फिर भी अँखियों मे बसाया जाए....
ना देखा मैंने तुझे कभी , और ना ही तूने दीदार किया...
तेरे इन्ही अल्फ़ाज़ों से, ना जाने मैंने कब प्यार किया...
कुछ दिन बाद मेरे यारों, ना जाने कैसा अफ़साना हुआ....
मै क्या कहती?उनका यारों, ना जाने कितनो से याराना हुआ...
"गर तोड़ना ही था, तो थोड़ा सलीके से तोड़ते....
सुनो! वो टूटे टुकड़े मेरे , शायद तेरे काम ही आ जाते"....
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