ये ज़िंदगी भी है उस पतंग की तरह
कभी ना कभी उड़ना सीख लेगी।
लट्टू की तरह एक ही जगह मंडराती,
कभी ना कभी संभलना सीख लेगी।
संघर्ष करती उन ज़माने के दांव-पेचों से,
कभी ना कभी खुद के दांव भी चलना सीख लेगी।
कभी टूट जाती हैं किसी के मांझे से,
उन हवाओं में डगमगा कर कहीं रुक जाती हैं,
पर किसी और के मांझे केे सहारे ही सही,
फिर से उड़ान भरने की उम्मीदे रख लेती हैं।
कभी गोते खाती तो कभी करती हैं चढ़ाई,
कभी ना कभी आसमां में ठहरना सीख लेगी।
बस जरूरत पड़ने पर ढील देना और लपेटना
कभी ना कभी ऊँंचाई छू लेगी।
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