एक अधूरी नज़्म-
शहर की उस तंग गली में अब भी,
मकाँ है मेरे पुरखों का,
बीता था जहां पे बचपन,
जहाँ लड़कपन गुज़रा था,
उस घर के एक छोटे कमरे में,
मेरी यादें रहती हैं,
कभी ये दिल जब कहता है,
चल उस से मिलने चलते हैं,
जिस कमरे में आता था सूरज,
जहाँ वो शामें रहती थीं,
उस कमरे के दर पे मुझको,
बस अब ताले मिलते हैं,
उन भूली बिसरी यादों से,
जब कभी मैं मिलने जाता हूँ,
उन यादों के किरदारों में
खुद को तनहा पाता हूँ।
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