सज़दे में गिरी उठ ना सकी
लब पे लर्जिश तारी है
गुनाहों का ख़सारा इतना है
चश्म से अश्क़ भी जारी है
धुप का साथी कोई नहीं
साये से ही सबकी यारी है
खुद पे गुमां कभी हुआ नहीं
नफ़रत की जो वो मारी है
यक़ीन - ए - मसर्रत कैसे हो
ज़ख़्म जो उसका क़ारी है
लाहासिल दुआएँ पूरी हुई
जन्नत से निदा अब आरी है
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