लबो को मुझसे चुराकर दूर ले जा रे हैं,
मेेरे सपने आज नाजाने कितने किस्से कह रे हैं!
रेत से फिसलते जा रे है ख्वाब मेरे,
जितना समेटू इन्हे,उतना छूटते से जा रे हैं,
वक्त की ही मानो जैसे अब रजा नहीं
लम्हे गुजरते हैं, खुदती हैं रोज एक kabr नई,
अरमानो का पुतला जैसे अपना सांचा भूल गया,
दूर खड़ा हो जैसे, एसे उसे मैं ताक रही।
लबो को मुझसे चुराकर दूर ले जा रे हैं,
मेरे किस्से आज नाजाने कितने किस्से कह रे हैं!
फूलो के बागानो से भवरें लौट रहे,
पसंद है महक फिर भी ये ना ठहर रे हैं,
चांदनी भी अब वापस चांद के पास लौट रे हैं,
जाने क्या हुआ जो मुझसे अपना दामन छिपा रही,
कुसूरवार थे वो अल्फाज़ सारे,
फरेबी होकर भी जो कत्ल हमारा कर गए।
लबों को मुझसे चुराकर दूर ले जा रे हैं,
मेरे सपने आज नाजाने कितने किस्से कह रे है!!!
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