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16 AUG 2019 AT 22:03

परिदृश्य पल भर के
ठहराव की अनुमति लेकर
उपस्थित होते हैं
नदी की सतह पर!
मैं सहजता से
प्रतिबिंबित छवि को
निहारती हूं अपलक।
मेरा ध्येय
उसे भित्ति चित्रों में
परिवर्तित करना मात्र है
किंतु स्पर्श का कंपन
तहस नहस कर देता है
एक एक कर बिखरती
टूटती तरंगों को
तट से निहारती हैं आंखें।
मैं सहेजती हूं
अपने प्रतिबिंबित
सहस्र भग्न चेहरे।
अंजुरी भर जल से
आचमन की
अभिप्सा अनर्थ भी
रच जाती है।

प्रीति कर्ण


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20 AUG 2020 AT 13:45

निहां मुझी में रहा वो हरदम, कभी मेरा जो हुआ नहीं था।
जला के खुद को किया उजाला, के दिल था मेरा दीया नहीं था।

छुपाए थे ताक पर जो मैंने कुछेक सपने नजर से खुद की,
कि चाँद शब भर वो आसमां पे मेरी ही जानिब रुका नहीं था।

सदा ही बुनता रहा गलीचे, वो चुन के काँटे फरेब वाले,
वो जिसके दर पे कभी मेरा सर अदब से जाके झुका नहीं था।

बुरा बड़ा था नजर में सबकी, वो फिर भी अच्छा लगा था मुझको,
कुबूल थे सब गुनाह उस को, नजर झुका वो जिया नहीं था।

लुटा दिए सब सलीके मैंने, खुदा के दर भी किए थे सजदे,
लिखा नहीं था नसीब में जो, वो मुझको आखिर मिला नहीं था।

चुराए क़ौसे-कुज़ह से ये रंग, क्या तितलियों ने मन की मेरे,
ख़िज़ाँ-ख़िज़ाँ था बयाबाँ दिल का, कोई भी गुल तो खिला नहीं था।

कभी करे जिक्र वो मेरा भी, कि जिसके ग़म में बने सुखन-वर,
पढ़े कसीदे कईं हैं उस ने, किसी में चेहरा मेरा नहीं था।

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10 JUL 2020 AT 20:23

कफ़स में क़ैद भी हों तो इरादे छुप नहीं पाते।
मुकां हो जब क्षितिज उनका परिंदे रुक नहीं पाते।

मुदस्सर हों फलों से तो यकीनन पेड़ झुकते हैं
कि फल ना हों जो काँटें हो शजर वो झुक नहीं पाते।

अना पर दूसरों की जो सवाल उठाते हैं अक्सर,
दिखा दे कोई आईना तो कह फिर कुछ नहीं पाते।

दुखाते हैं किसी का दिल खुदी ओ फ़ैज की खातिर
लुटाकर भी ख़जाने वो मुकम्मल सुख नहीं पाते।

मुसाफिर जो ठहर जाते हैं लहरों के थपेड़ों से,
जतन कर ले वो कितना ही मुकां का रुख नहीं पाते।

करे कितना भी दानो-धर्म दर-ए-दैर पर जाकर,
ज़रा काया न खुश घर में फ़ज़ल वो कुछ नहीं पाते।

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14 JUL 2020 AT 21:25

सिफ़ाले-जीस्त पर अब तो रहम कर दे मिरे मौला,
रिहा कर दे कफ़स से जां करम कर दे मिरे मौला।

दिला दे तू निवाला हर जुबां को या फ़ज़ल ये कर
दहकते भूख के अंगार कम कर दे मिरे मौला।

लुटा अपनी ही अस्मत नाज करते हैं खुदी पर जो
अता उन को वही रंजो-अलम कर दे मिरे मौला।

तमाशा रोज होता है बिसात -ए- राजनीति यहाँ,
नकाब-ए-अक्स उन के तू कलम कर दे मिरे मौला।

चुभे है दिल में ये काँटा कि बेटी की मिली काया,
बदल फिर रस्म या दिल बे-रहम कर दे मिरे मौला।

परे हूँ मैं समझ से फाज़िलों की भी ख़लिश है ये,
मुझे तू और ज्यादा, नाफ़हम कर दे मिरे मौला।

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24 JUL 2020 AT 22:29

जिंदगी जीने के भी, नाम से डर लगता है
मय है सस्ती, दवा के दाम से डर लगता है।

फूल माँगे ही नहीं हम ने तबस्सुम के ही,
मुस्कुराने के फक़त नाम से डर लगता है।

राख ही रह गई, हसरत की चिता में मेरी,
ख्वाहिशों के निहां अंजाम से डर लगता है।

बीत जाती है शबें, गिनते हुए तारों को,
अब हरिक ढलती हुई शाम से डर लगता है।

रहगुजर में नहीं बैठा कभी जो थक के भी,
दौर-ए-इल्लत उसे आराम से डर लगता है।

बेटियाँ लुट रहीं अब घर की ही दीवारों में,
उनको पिंदार-ए-दर-ओ-बाम से डर लगता है।

फूल चुनता जो रहा, खार से घायल हो कर,
बागबां को हसीं, गुलफ़ाम से डर लगता है।

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6 AUG 2020 AT 18:43

ऐ ढलते सूरज, अपनी तपन मुझे देते जा।
कल की सुबह मुझे उठना है तेरे तेज संग।

ऐ ढलते सूरज, अपनी लालिमा मुझे देते जा।
कल की सुबह मुझे उठना है आभा संग।

ऐ ढलते सूरज, ये आकाश मुझे देते जा।
कल की सुबह मुझे उठना है विस्तार संग।

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25 JAN 2020 AT 22:46

तुम ना अपनी जुल्फों को
बाँध के रखा करो
वरना दिन में शाम हो जाने का
इल्ज़ाम तुम पर ही होगा

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18 FEB 2020 AT 23:09

Na Awaaz Hui Na Tamasha Hua
Bus Khamoshi Se Tute Gaya Ek Bharosha Jo Tujh Pr Tha...

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1 AUG 2020 AT 12:50

इश्क़ का सफर बस
इतना सा है,
वो आंखों से उतर कर ,
रूह में ठहरता है।

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3 AUG 2020 AT 17:56

मैंने भी आज ज़िन्दगी के ,
कुछ पन्ने पलट कर देखे,
तो देखा ,बचपन के कुछ दिन ही मेरे बहुत सुहाने थे,
ना कोई मेरा , ना कोई तेरा
वो कितने हसीन जमाने पुराने थे।
वो माँ का आँचल ,पिता का साया
वो भाई-बहन की लड़ाई और प्यार,
वो खूबसूरत जज्बातऔर ख़्वाब,
बाकी उम्र तो हमने हँसती हुई
ज़िन्दगी की गुल्लक से बहुत से पल चुराने थे।
बचपन के कुछ दिन ही मेरे बहुत सुहाने थे।।

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