निहां मुझी में रहा वो हरदम, कभी मेरा जो हुआ नहीं था।
जला के खुद को किया उजाला, के दिल था मेरा दीया नहीं था।
छुपाए थे ताक पर जो मैंने कुछेक सपने नजर से खुद की,
कि चाँद शब भर वो आसमां पे मेरी ही जानिब रुका नहीं था।
सदा ही बुनता रहा गलीचे, वो चुन के काँटे फरेब वाले,
वो जिसके दर पे कभी मेरा सर अदब से जाके झुका नहीं था।
बुरा बड़ा था नजर में सबकी, वो फिर भी अच्छा लगा था मुझको,
कुबूल थे सब गुनाह उस को, नजर झुका वो जिया नहीं था।
लुटा दिए सब सलीके मैंने, खुदा के दर भी किए थे सजदे,
लिखा नहीं था नसीब में जो, वो मुझको आखिर मिला नहीं था।
चुराए क़ौसे-कुज़ह से ये रंग, क्या तितलियों ने मन की मेरे,
ख़िज़ाँ-ख़िज़ाँ था बयाबाँ दिल का, कोई भी गुल तो खिला नहीं था।
कभी करे जिक्र वो मेरा भी, कि जिसके ग़म में बने सुखन-वर,
पढ़े कसीदे कईं हैं उस ने, किसी में चेहरा मेरा नहीं था।
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