सुहागन बनी अभागन...
पहली बार अपने सुहाग के साथ आई वो अंदर,
थी बहुत खुश उसे नही था किसी का डर ।
उसे लगा अब होगा सब सही,
लेकिन ऐसा कुछ हुआ हि नही।
रोज़ चौखट पर सर टिकाए बैठी रहती,
सोचती उसका सुहाग आएगा,
और उसके लिए गजरे भी लाएगा।
ना आया गजरा ,ना उसका सुहाग,
ख्याल इतने आए कि उसके मन में लग गई आग।
अपने सुहाग की राह देखते-देखते हो गई परेशान,
उसके भलाई का व्रत रखते-रखते अब नही रही उसमे जान।
चौखट के उस ओर कोई उसे अपना दिखाई दिया,
पागलो सी भागी क्योकि यही था उसका पिया।
अचानक दिखा कुछ ऐसा जिसे देख रह गई दंग,
नही रहा होश चेहरे के उड़ गए सारे रंग I
गजरे कि आश थी लेकिन वह सौतन ले आया,
हँस कर रो पड़ी क्योकी ये उसे तनिक नहीं भाया।
उसका सुहाग हो गया चरित्रहिन ,
हाँ ये वहीं इंसान है जिसके लिए वो रोती रात-दिन I
अपने घर से भी पराई हो गई,
और प्यार के तलाश में खुद हि खो गई।
सिंदूर माँग में रहते हुए भी मिट गया,
उसके साथ सजाया सपना वही का वहीं सिमट गया I
जो सिर्फ उसका था उसे वो कैसे बाँट लेती,
अपने सात फेरे भूलकर वो उसे किस हक से देती।
अब नही रहा कुछ बाकी, उसे बस भगवान से आश है,
आज भी वो पुरानी यादें उसके लिए उतनी हि खाश है।
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