वो एक छुअन से ही दे यूँही संवार मुझे,
जो रूठ जाऊँ तो फ़िर से ले पुकार मुझे।
ना है ख़याल मेरा ना ही रही फ़िक्र कोई,
एक दरख़्वास्त है कोई ना ही करे प्यार मुझे।
टूट के बिखरा जा रहा हर इक पल अब मैं,
अब जो कोई दे सके तो सिर्फ़ ऐतबार मुझे।
नहीं कर सकती हूँ मैं रोज़ मुक़ाबले उनसे,
ना ही अब माँगता वो हाथ जो दे सँवार मुझे।
तमाम इल्ज़ाम-ओं-शिक़वे तेरे भी झूठे हैं,
आज तक अज़ीज़ है हक़ीक़त-निगार मुझे।
मैंने बस अश्क़ छुपाये हैं सिलवटों में कहीं,
किसी हसीं सी सुबह का ना इंतज़ार मुझे।
क़यामतों के बीच मर के जब बेक़सी ना चुनी,
नहीं फ़िर चाहिए पल भर को भी क़रार मुझे।
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