अतीत के पन्नों से एक याद आई है
जाने कितने वो गहरे राज समाई है,
था इक भेडिया इंसां के वेश में
कहते थे जिसको बाबा उस देश में,
थी मैं इक नादान सी गुडिया
उसने बनाई अनेकों कडियाँ,
घरवालों का उसने विश्वास था जीता
थी उसकी नजरें जैसे भूखा चीता,
घरवालों को दिला के विश्वास
तोडी उसने मेरी आस,
बाबा -बाबा कहती थी जिसको
दिये उसने मेरे मन पे घाव,
समय का उल्टा चक्र तो देखो
आज उसी घर में मुझे मिलती है छाव,
पल -पल बीतता है इस घर में
रहती हूँ मैं उन यादों के डर में,
आज फिर फोन की घंटियाँ टनटनाई हैं
आज फिर वो यादें वापस लौट आई हैं,
हर माता -पिता से है एक ही दरख्वास्त
अपने नाजुक से बच्चे के लिए यूँं ही ना कर लें किसी पर विश्वास....
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