खींच दी थी लक्ष्मण रेखा तुमने,नया था सबकुछ,
प्रेम था इस विश्वास से ही स्वीकारा था सबकुछ,
दिन, हफ़्ते, साल बीत गये सब जाना पहचाना हो गया,
स्वीकार, समर्पण, आदत सी, अस्तित्व कहीं खो गया,
पर वह खींची रेखा हर दिन और उभर ऊपर आती है,
खोये अस्तित्व की खड़िया ही शायद उसे गहराती है,
हमने प्रेम को सर्वोपरि रख यह समर्पण स्वीकार किया,
सोचा न था कि वर्चस्व को तुमने रेखा का आकार दिया।
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