मुफलिसी में, जिसके सिर पे टांट थी,
वो बारिश की सुन, खबर सहम उठा।
मूसलाधार बारिश से, नदी आई उफान पर,
देख बाढ़ का रौद्र रूप, समंदर सहम उठा।
जाने क्यूं नहीं जगाती हमें, चीखती आवाजें,
बच्ची को निर्वस्त्र देखकर, पत्थर सहम उठा।
धर्म की लड़ाइयों में, खुश था जो इतना,
अपनो की लाशें देख, वो कट्टर सहम उठा।
फितरत इंसान की देख, वक़्त शोक में है,
इतना बदलते देख उसे, अवसर सहम उठा।
शोलो को दामन में लिए, जो कर रहे थे गुमा,
जलता देख अपना उसमें, वो घर सहम उठा।
उंस ना हुई उस दरिंदे को, मां मारते हुए
मां का दिल काटता वो, नश्तर सहम उठा।
अब और क्या क्या दिखाएगा कलयुग बता मुझे,
की देखता "नवीन" यह, खोफ ए मंजर सहम उठा।
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