वो हमसे रूठें हैं..
हम भी उनसे रूठें हैं..
फिर भी शराफ़त का सामान लिए बैठे हैं..
कम्बख़्त पहल करे..
तो करे कौन?
दोनों ख़ामोशी की ज़ुबान लिए बैठे हैं..
ज़िद ऐसी की..
हैं ज़द में सभी..
सब अपने अपने इल्जाम लिए बैठे हैं..
रोने वाले आए..
रो कर चले भी गए..
हम हीं हैं जो झूठी मुस्कान लिए बैठे हैं..
बदनाम इतने की..
खुद को भुलाना ही मयस्सर.. पर
गुमनामी में इक उनका ही नाम लिए बैठे हैं..
खुशी ने दी है दस्तक़..
शहर में शोर है बरपा..
वो हैं कौन? जो गली सुनसान लिए बैठे हैं..
लौटते वक़्त देते गए..
अपनी नेकी का बाज़ार..
अब हम हैं जो उनका एहसान लिए बैठे हैं..
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