QUOTES ON #AMALGAM

#amalgam quotes

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1 FEB 2017 AT 11:44

मँज़िल हो
इस सफर की तुम
क्यों भला शिकवा किया जायेगा।

पहली किरण
सरीखा है जिक्र तुम्हारा
इसलिए सुबह खुशनुमा सी है।

मिल जाएँ
किसी रोज़ जो हम
तो दिन यादगार हो जायेगा।

अनजान हो
मुझसे शायद तुम अभी
धुंध एक जमी सी है।

मन से
खोजने चलोगी जो तुम,
चेहरा रूबरू हो ही जायेगा।

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1 FEB 2017 AT 10:45

- Shubhi: The Wrenched Nerve

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1 FEB 2017 AT 12:06

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1 FEB 2017 AT 11:44


तू उजला चाँद,
मैं तेरा दाग प्रिये,
ये मुसाफ़िर हमेशा साथ तेरे..

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26 FEB 2017 AT 10:06

कभी जिसने आधी रात को उठ
कपकपाते बदन पर कम्बल ओढ़ाया था
आज जाती हुई ठण्ड को देख उसे कहते हो
माँ, छोड़ो तुम नहीं जानती!

कभी जिसने एक एक शब्द का मोल
बार बार लगातार बताकर समझाया था
आज चैटिंग के ज़माने में उसे कहते हो
माँ, छोड़ो तुम नहीं जानती!

कभी जिसने हर बाधा के सामने
खड़े रह, डटकर लड़ना सिखाया था
आज पर्वत चढ़ जाने के नाम पे उसे कहते हो
माँ, छोड़ो तुम नहीं जानती!

कभी साथ जो छोड़ जाएगी
तो आँसू भी साथ न देंगे तुम्हारा
तब किसे फटकार कर कह पाओगे
माँ, छोड़ो तुम नहीं जानती!

- सौRभ

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1 FEB 2017 AT 10:48

सुबह हुई,
निकलूँ फिर ठिकाना छोड़,
हर दिन जैसी वही होड़ ।

प्रिये मेरी,
तुम अंत पगडंडी का,
मेरा रुख़ मुसाफिर पगडंडी का ।

डोर मेरी,
बिन ढील तुमने तानी,
जैसे आग में झुलसता पानी।

तलब वही,
मिल जाऊं तुममें जाकर,
जैसे नदी समुद्र रोष भुलाकर।

चलता रहूँगा,
जबतक तुम न मिलो,
मुसाफिर मैं, प्रिये तुम बनो ।

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1 FEB 2017 AT 10:48

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1 FEB 2017 AT 23:29

चौंसठ खानों
की बिसात नहीं जिंदगी
जो शतरंज में सिमट जाए

अजीब आडम्बर
फैले चहुंओर हैं, मुझे
हकीकत की बानगी नहीं दिखती

घनघोर घटा
छंटे तो देखूं, प्रिये
सुर्ख नीले आसमान में तुम्हें

गुलिस्तां की
तासीर है के, बिन
भंवर कली न फूल बने

दो शब्द
बिखरा दो अंजुमन में
बोली नहीं तो गाली सही

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मुसाफिर सा
राहों में निगाहों से
प्रेममय मंजिल को तलाश लूँ

ऐ जिन्दगी
फुर्सत के दो पल
इस मुसाफिर को उपहार दो

प्रिये तुम
इंतज़ार करना जबतक मैं
प्रेममय मंजिल को तलाश लूँ

ऐ जिन्दगी
खुशियों की ये बहार
इस मुसाफिर को उपहार दो

मंजिल तुम
बनी हो प्रिये, तुम
मेरी प्रेरणा को विस्तार दो।

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27 FEB 2017 AT 18:31

वो सुहानी सर्दियों की शाम, अनमना सा राजू चप्पल पैरों में डाल घर की छत पर सूख रहे ऊनी स्वेटर और जुराबों को लेने जा ही रहा होता है, कि तभी किसी के साइकिल के आने की आवाज़ सुन, एक नज़र वो बरामदे की ओर डालता है। पिताजी काम से लौट आए थे, और राजू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। सर्दियों के मेले लगे थे गाँव में, राजू खुश होता भी नहीं तो क्यों। पिताजी का हाथ थाम, गले पे माँ के काले टीके के निशान को एक हाथ से छुपाते, राजू मेले की ओर चल पड़ा। जाते ही उसकी नज़र सबसे पहले बंदूक से गुब्बारे फोड़ने वाले खेल पर पड़ी, जिसका इंतज़ार उसे साल भर से रहता है।
धागों से लटकी टॉफियां, मोमबत्तियां और छोटे छोटे खिलौनो को देख, राजू की आँखें हर बार की तरह एक अलग चमक के साथ नज़र आती हैं। पिताजी की मदद से बन्दूक को उठाकर जब राजू निशाना साधने की कोशिश करता है, तभी उसकी नज़र पास खड़े एक लड़के पर पड़ती है। वो भी नन्हें राजू की उम्र का प्रतीत हो रहा है, लेकिन उसके कपड़ों से उसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। राजू आँखों से इशारा कर उसे बुलाता है और बन्दूक आगे कर उसे एक बार निशाना लगाने को कहता है। कुछ झिझक कर, वो बंदूक हाथ में ले, निशाना लगाता है। नन्हा राजू देख रहा है कि उसकी नज़र टॉफ़ी के गुच्छे पर है। उसका साथ देने, राजू बन्दूक पकड़ता है। पहली बार जादू चल जाता है ज़रुरत का कि अब निशाना अचूक लग जाता है दोस्ती का।
- सौRभ

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