ये घरों के अंदर जो "शोर" हैं ना,
दीवारों ने कितना सहा हैं।
चुप–चाप, अडोल और निडर सब सुनते हैं।
जानते हो..
बारिश के दिनों में ये भी रोते हैं,
एक हम हैं, उसे सीलन समझते हैं।
गर्मियों में ये, चिनक जाते हैं,
हम बेवकूफ़ उसकी मरम्मत कराते हैं।
देखो ना, इतना दर्द सहते हैं,
चुप–चाप किसी कोने से फट जाते हैं।
वो, हमारी सोच पर तरस खाते हैं,
कहते हैं,
जाने दो! बेचारे! हमारे ही बच्चें हैं।
वो भी बेबस और लाचार फिर सुनते और सहते हैं।
एक हम हैं, जो, अब बर्दाश्त नहीं होता कहते हैं।
-