// α // प्रेम बेढंग रूप में होता है तराजू में तूलता है पैर धूल कोई समझता सिर ताज कोई कहता है अंगार सा कोई जलता शीतलता को कोई पाता है हर किसी से होता किसी का होकर कभी रह जाता है अश्रु कोई बहाता कोई यूँही खिलखिलाता है कोई मृत इसमे स्वयं को पाता है मुर्दा कोई फिर जी जाता है प्रेम विरह कोई लिखता है देह विमुक्त जब होता है फिर खोज किसी की करता प्रेम गीत फिर कोई लिखता है बंदिश में कोई इसे रखता है उन्मुक्त गगन में कोई बहता है प्रेम गहराइयों में कोई जाता है मनुज व्यक्त उतना कर पाता है तली जब छु आता है मनुज मौन हो जाता है प्रेम बेढंग रूप में होता है.....