न रंज़ न रंजिश है किसी से...न कोई खलिश है
और कुछ भी नहीं शायद, ये वक़्त की तपिश है
जब जाँ आधी...... साँसे भी अधूरी हैं मेरी
फिर ज़िस्म में ये कैसी हसरतों की आतिश है
चाह के भी वहाँ जहाँ मैं पहुँच नहीं पाता
देरी ही सही वहाँ पहुंचने की ख़्वाहिश है
कितने दफे देख कर ठगा रह गया हूँ मैं
वल्लाह अब भी तुझमें पुरानी वही कशिश है
तेरे दिल से मेरे इश्क़ का जनाज़ा उठ जाए
ये कुछ और नहीं बस रक़ीबों की साज़िश है
"अनगढ़" तस्वीर सिरहाने रखने का ये ही सबब
तूने फरमाई अता जो वोह नवाज़िश है
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