"ऊँची हैं मंजिलें"
कद इन ठोकरों का मंजिलों से ऊंचा कहाँ होता है ,
सम्भलना सीख गिरकर, राह अपनी क्यूँ खोता है।
तमाम कोशिशों की लागत है तेरी ज़िद्दी हौसलों में,
जिसके पीछे है तू, किसने कहा वो मकाम छोटा है।
हार और जीत के पहलू तो बस बहादुरों के हिस्से है,
जंग में उतरा ही नहीं जो, किस्मत पर वही रोता है।
बेइंतहा मंज़िलों के ख्वाब तो खुली आँखों में आते हैं,
तारों सा चमकना हो जिसे, रातों को कहाँ सोता है।
जमाने के बस में कहाँ चलना आग में इन लहरों की,
हँसने दे गीदड़ों की भीड़ को ,तू समंदर का गोता है।
रिश्वतों के महल तो बस इन कायरों की निशानी है,
देख राजा को जंगल के, की शेर कहाँ मुहँ धोता है।
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