भ्रातृप्रेम के महामेध में, यूँ अंतिम होम हुआ जीवन,
पृथक धरा से हो जैसे, कुंठित व्योम हुआ जीवन!!
हाँ! वीर का युगधर्म रहा है, धर्म मार्ग पर चलने का,
किंतु कैसा युगधर्म है ये, अपनी भार्या को तजने का!
स्वसा भाग्य की देवी है, प्रिय का उनको साथ मिला,
मैं लाचार अभागी ठहरी, महलों में सूना हाथ मिला!!
चीख चीखकर पूछ रही, महलों की खंडित प्रतिमाएं,
विरह लिखा आयी थी क्या, हाथों की निष्ठुर रेखाएं!!
पूर्वउपेक्षित यौवन को, एक तप सा तुमने कर डाला,
जलकर बुझती, बुझकर जलती है मेरे तन की ज्वाला!!
वामांगिनी तुम्हारी हूँ, अर्पित सब कुछ तन, मन, धन,
मर्म निवेदन है स्वामी से, ले चलो हमें उस नंदनवन!!
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