गर्दिश-ए-अय्याम कुछ इस कदर देखा है,
अपनो को भी गैर होते हुए देखा हैं।।
शानासायी खूब थी किसी जमाने मे उनकी भी,
ईमरोज़ तो खुद को भी खोते हुए देखा है।।
मयस्सर थे वो हर वक़्त जिन लोगो की खातिर,
उनको भी फ़रामोश होते हुए देखा है।।
इ'ताब-ए-जमाने को खिताब क्या नवाज़ा,
अपनी मोहब्बत को भी क़ुर्बाँ होते हुए देखा है।।
हाँ वो मंज़र ना क़ाबिल-ए-बर्दास्त था,
मगर तमन्ना-ए-खाम को भी हँसते हुए देखा है।।
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