एक शाम गुज़ारिश करती-सी,
हवाओं संग कुछ बोल गई,
चुपचाप कहीं मैं बैठी थी,
कुछ भी उससे न बोल सकी,
आकर मुझसे वो फिर बोली,
क्यूँ न अब यूँ हंसती हो तुम,
क्यूँ चुप-चुप यूँ रहती हो,
देखो ज़रा आईने में मुस्कुराते हुए,
कितनी सुंदर तुम लगती हो,
सुनकर उसको यूँ कहते-कहते,
न चाहकर भी फिर मुस्कुरा उठी,
भूल गयी सब बीती बातें,
खुल कर फिर उसके संग मैं झूम गयी,
प्यार भरी वो बातें कुछ,
मेरे संग वो कर जाया करती थी,
वो शाम ही तो है एक,
जो सबके बाद मुझमे थम जाया करती थी।
-