मिलना ज़रूरी था ख़ुद से भी ,
वरना इक और कलाकार दफ़न हो जाता ।
इस लापरवाह , बेकद्र भीड़ में ।
रोंध दिया जाता वो भी ,
हमशक्लों की महफ़िल में ।
औरों की तरह उसे भी बेमन ,
नकल की कला अपनानी होती ।
उसकी कारीगरी , बली चढ़ जाती ।
ठिकाना वही , अंधेरी गुमनाम बस्ती होती ।
उसके इकतरफे अंदाज़ को ,
कफ़न में सुला दिया जाता ।
ओ ! कारीगर , इस पिंजरें से आज़ाद हों ।
मन में तेरे , शहीद - ए - फ़िराक न हों
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