गुजरता था रोज उस गली से,
तो उनके लिए मेहमान था,
बाहुबली थे वो,
या मैं ही अंजान था,
जब जरूरत थी सहारे की,
तो उनको बहुत काम था,
मैंने बढ़ाया था हाँथ मेल जोल का,
तो उनके हृदय में झोल झाल था,
आज चुनावी सियासत की जंग है,
जिसे देख वे स्वयं दंग हैं,
पुरखों की वसीयत है,
पर मेरी भी एक नसीहत है,
जिंदादिली जमीं से है,
शिष्टाचार परवरिश की कमी से है,
जो अहंकार का अपना नोट टांगते है,
आज भिखारियों के जैसे मुझसे वोट मांगते हैं।
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