अगर तू तलवार होता
काट डालता शीश तू शत्रु का
पर तुझको ना किंचित भी दुख होता।
जख्म देता कितने भी गहरे
और शत्रु जब दुख से रोता,
तनिक भी ना तुझे बुरा लगता नाही तू कभी लज्जित होता।
पर याद रख तू कोई तलवार नही
जख्म देकर खुश ही रहना,इतना भी आसान नही।
माना तेरा जीवन है रणभूमि
पर समय कि है अब पुकार यही
पुनःविचार कर तू फिर से
क्षमादान कर दे तू फिर से
है मानवता कि एक मांग यही।
है मानवता का एक सार यही।।
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