स्वप्न झड़े फूल से कोई तो चले वसूल से,
क़सीदा हो मुझसे ही कोई पढ़े ग़ज़ल ऐसे भी।
साहब-ए-नवा तुझ से है वरक़-वरक़ तुझ से है,
फर्क इतना ही है शुरू से खुले ये रवानगी ऐसे है।
कुछ खुद से कुछ गम में हूं अब गिला है मीत से,
दिमाग़-ए-दहर से परे हूं मैं की कोई खोजे कैसे भी।
हाथ में थी कलम की हाथ ही सँवार दूं ज़ख्म से,
था दिया हुआ ज़ख्म की जख्मी को प्यार दूं कैसे भी।
मिलवाया सबसे इसी ने अब इससे ही लेख है,
कविताओं से कवि का सिलसिला बस कलम से है।
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