संत्रस्त हुए क्रन्दित मन में ,हर पीड़ा में ले ज्योति जगा,
तुम गृह त्याग कर बुद्ध हुए,मैं सब सह कर भी यशोधरा,
1) तुम उषा काल मे छोड़ गए,मैं निशा काटती सब सहकर,
दायित्व तुमपर बस स्वयं का क्या? मैं सर्वस्व लुटाऊँ सुत जनकर ,
जप तप का ज्ञान ना जानूं मैं, मोक्ष अपना तुमको ही माना,
योग के 'योग' को ना समझ सकी, सर्वस्व अपना तुमको ही जाना,
छलकती तुम में गर ज्ञान ज्योति,मुझमें रिक्तता का सोम भरा....
तुम गृह त्यागकर बुद्ध हुए,मैं सब सहकर भी यशोधरा......
2) कहलाये तुम योगी-जोगी,भार्या का 'योग' ना समझे तुम,
अर्धांगिनी के अर्थ को व्यर्थ किये, 'भाग' अपना न दे पाये तुम,
सिद्धि-तप जो भी कारण था,मैं नैनों से पथ को सींच देती,
यों दिया आघात क्यों प्राणप्रिये क्या नहीं तुम्हें अनुमति देती ?
मेरी पीड़ा की साक्ष्य यहाँ है कोई नहीं बस वसुंधरा....
तुम गृह त्यागकर बुद्ध हुए,मैं सब सहकर भी यशोधरा......
3) तुम युग पुरुष,सुविज्ञ हो तुम,संसार के सार को समझाया,
विज्ञ हो तुम,हाँ बुद्ध हो तुम,दिव्य ज्ञान अलख को जगाया,
परिणीता हूँ मैं 'सिद्धार्थ' की, बुद्ध 'भाग' को कैसे पहचानूं ??
राहुल की हूँ धात्री मैं, ममता से ज्यादा ना कुछ जानूँ,
मैं ही अतृप्त रह गयी बस,संतृप्त तुमसे यह विश्व ,धरा....
तुम गृह त्यागकर बुद्ध हुए,मैं सब सहकर भी यशोधरा ...© Aditi Tripathi 'आज़ाद' 🇮🇳
-