उसका क्या मलाल जो मयस्सर ही नही
हासिल है कुछ तो मुख़्तसर ही सही
अन्जान लहरों पर उतरे यकीं के साथ
छोड़ कर चला गया रहबर ही कहीं
जिसके निशां पर ही चलते रहे उम्रभर
उसने देखा कभी ,मुड़कर भी नही
जिस इंतखाब-ए-तरजीह पर बना आशियां
वो दरों दीवार फिर उसकी मुंतज़िर ही रही
वो छत ,गलियां, बूढ़ा बरगद,वो सब्ज़-ज़ार
जाता हूँ अबभी मगर तन्हा,यकसर ही वहीं
उन आँखो लबो की मस्तियाँ और थी,'राज',
साकी तेरी किसी शराब में वो असर ही नही
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