क्या कोई किसी को हक़ीक़त से जानता है
मुझे लगता है अपनी जरूरत से जानता है
दिल-ए-मासूम के ज़ख्म किसको दिखते हैं
यहाँ तो ख़ुशी हर शख़्स सूरत से जानता है
उस इंसान से रिश्ता हरगिज़ नहीं बेहतर
जो तुम्हे, तुम्हारी मिलकियत से जानता है
ऐसी पहचान से गुमनामी कई गुना अच्छी
ग़र कोई भी तुम्हे बस नफरत से जानता है
उसकी ख़ुशक़िस्मती का कहो, कहना क्या
कोई उसे, उसकी नर्म आदत से जानता है
मैं भी ख़ुशनसीब हूँ, पर चलो तन्हा ही सही
पर मुझे हरकोई मेरी लिख़ावट से जानता है
एक पहचान है मेरी जो ता-उम्र नहीं बदली
यार मुझे आज भी मेरी आहट से जानता है
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