Srivastava Vikram   ("पागल")
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Joined 5 February 2017


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25 JUL 2019 AT 22:17

(पैरलल यूनिवर्स)


घोड़े

जिन्होंने लाख चाबुक सह कर भी

दौड़ना क़ुबूल नहीं किया

जिनकी लगाम उनके नथुने फाड़ कर भी

उन्हें नियंत्रित न कर सकी

जिन्होंने पैर की ठोकर से खोदी मुट्ठी भर घास

और उसे चबाते रहे कई घंटों तक

घोड़े

जो नहीं बने कभी भी किसी रेस का हिस्सा

जीत गए


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20 JUL 2019 AT 14:59

हम शरीफ़ इंसानों
की अजीब आदत है
हम लिबास वालों को
नंगेपन से नफरत है
सच को सच नहीं कहते
झूठ भी छुपाते हैं
नंगे रहने वालों को
बेअदब बताते हैं
हम अधूरी चाहत को
ख़्वाब नाम देते हैं
मौत की हक़ीक़त को
इक पड़ाव कहते हैं
ज्यूँ का त्यूँ नहीं कहते
इस्तिआरे लाते हैं
बेवजह सजाते हैं.

जिस्म की ज़रूरत को
तुम भी इश्क़ कहते हो?
तुम बड़े  मुहज़्ज़ब हो...

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18 FEB 2019 AT 21:39

रक़्साँ ये काएनात है, चल रक़्स करते हैं
हर एक शय नशात है, चल रक़्स करते हैं

हम सारे लोग नाचते ज़िन्दाँ में क़ैद हैं
सो रक़्स ही नजात है, चल रक़्स करते हैं

फिर से वही है दश्त वही प्यास और हम
फिर से वही फ़ुरात है, चल रक़्स करते हैं

होते ही सुब्ह दार पे जाएंगे हम सभी
लेकिन अभी तो रात है, चल रक़्स करते हैं

धक धक की धुन पे रक़्स-कुनाँ है अभी भी दिल
ये कम क्या इल्तिफ़ात है? चल रक़्स करते हैं

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29 NOV 2018 AT 18:47

तुम रात हो
शांत अँधेरी रात
और मैं दहकता सूरज
तुम में है मेरी कमी
तुम्हे है मेरी ज़रूरत
मगर...
मगर मेरे होने पर
तुम नहीं रहोगी तुम
सो अच्छा यही होगा कि मैं
किसी चाँद को करूँ दूर से रौशन
तुम्हारे लिए...

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28 NOV 2018 AT 14:55

अबके बरस एग्जाम न लाना भग्गू जी
मेरी नइया पार लगाना भग्गू जी

याद करो भग्गू जी तुम भी बच्चे थे
याद करो तुम ही कब कितने अच्छे थे
खेल कब्बड्डी मक्खन चोरी याद करो
और मइया के डंडे खाना भग्गू जी
अबके बरस...

बीजगणित के खेल मुझे नइ आते हैं
सपनो में सइन कॉस अर टैन डराते हैं
सिंगिंग का एग्जाम लें बोलो मास्टर से
और सुनो फिर मेरा गाना भग्गू जी
अबके बरस...

न्यूटन आर्किमिडीज तो मेरे दुश्मन हैं
वो क्या जानें दुनिया में क्या क्या फ़न हैं
तुम तो वंशीधर हो समझ रहे होगे
मम्मी पापा को समझाना भग्गू जी

अबके बरस एग्जाम न लाना भग्गू जी
मेरी नइया पार लगाना भग्गू जी

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26 NOV 2018 AT 13:02

मैं अब उकता गया हूँ 
इन झूठी कविताओं से 
इनमें नहीं है सच्ची पीड़ा 
नही है कोई भी सत्य भाव
सियाही से कागज़ पर लिखी गयी हर कविता
अभिनय मात्र हैं उस पीड़ा का
जो अभिनेता ने कभी भोगा ही नहीं

मैं पढ़ना चाहता हूं सच्ची कविता
जो हरखू की पीठ पर लिखी थी मालिक के चाबुक ने
जो राधा के शराबी पति ने लिखी थी
उसके हर अंग पर अपनी बेल्ट से
जो हर रोज़ स्कूल का मास्टर लिखता है 
मासूम बच्चों की कोमल हथेली पर 
अपनी छड़ी से

मुझे कोफ्त होने लगी है उस बनावटी कविता से
जो मंच के बड़े बड़े लाऊड स्पीकर  
जनता के कानों पर हर रोज़ लिख रहे हैं
मैं पढ़ना चाहता हूँ वो जीवंत कविता
जो पुलिस की लाठियों ने सड़को पे लिखी
जो झांकती है बेरोजगार लड़को के 
फूटे हुए सर से
जो कविता स्कूल जाती बच्चियों के मन पे लिखी है
चौराहो पे खड़े कुंठित मर्दाना होठों ने
जो कविता है चीखों को ख़ुद में समेटे
जो कविता हर इक दिन लिखी जा रही है

आनंददायी है पीड़ा की कविता...

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18 NOV 2018 AT 0:33

बुरी तरह लहू लुहान बचा
वो ख़्वाब सुब्ह नीमजान बचा

मैं एक डूबता सफीना हूँ
तू मुझको छोड़, भाग, जान बचा

अभी है देखना क़यामत भी
अभी है एक इम्तिहान बचा

यक़ीन की मियाद छोटी थी
फिर उसके बाद बस गुमान बचा

समाअतों ने नींद फेंकी है
ऐ किस्सागो! तू दास्तान बचा

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13 NOV 2018 AT 23:15

जुनूं की धूप रहेगी अभी ज़माने तक
ज़मीन-ए-ख्व़ाब-ओ-ख़यालाँ के रस्मसाने तक

दिनों में ख्व़ाब हमीं देखते थे दीवाने
खुद अपनी पीठ हमीं लाये ताज़ियाने तक

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3 OCT 2018 AT 21:30

कई रातें वहां बेडरूम में बैठी हुई हैं
न सोती हैं न कुछ कहती हैं बैठी घूरती हैं
कभी दीवार पर चिपकी अकेली छिपकली को
कभी पंखे के ऊपर जाल बुनती मकड़ियों को
किताबें फर्श पर मुर्दा पड़ी हैं और उनके पास
कई मिसरे कई किरदार बैठे रो रहे हैं

हैं कुछ बेचैनियां जो बालकनी में ही खड़ी हैं
अजब सी इक रिदम में सांस भरती छोड़ती सी
कई खुदकुश ख़यालों ने वहीं डेरा किया है
मगर इक आस उनको कूदने से रोकती है

किचेन के सिंक में बैठी है इक बासी सी बदबू
किसी को भी वहाँ आने से भरसक रोकती है
मगर इक प्यास आ जाती है फ्रिज तक रेंगती सी
जो डूबी घूंट भर पानी में तिल तिल मर रही है

है इक अफ़सुर्दगी जो सारे घर में घूमती है
कभी बेचैनियों से मिलके सीना पीटती है
कभी रोती है यादों के गले लग कर सिसक कर
कभी दालान में जाकर के सिगरेट फूंकती है

मैं पूरे घर को बैठा देखता हूँ एक कोने से
गया इक शख़्स और घर में मेरे मजमा लगा है

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5 SEP 2018 AT 23:53

तू मेरी जुस्तजू में है?... मरेगा
मैं वो पानी हूँ जो पानी नहीं है

تُو میری جُستجُو میں ہے؟...مریگا
میں وہ پانی ہوں جو پانی نہیں ہے

~विक्रम श्रीवास्तव

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