हम शरीफ़ इंसानों की अजीब आदत है हम लिबास वालों को नंगेपन से नफरत है सच को सच नहीं कहते झूठ भी छुपाते हैं नंगे रहने वालों को बेअदब बताते हैं हम अधूरी चाहत को ख़्वाब नाम देते हैं मौत की हक़ीक़त को इक पड़ाव कहते हैं ज्यूँ का त्यूँ नहीं कहते इस्तिआरे लाते हैं बेवजह सजाते हैं.
जिस्म की ज़रूरत को तुम भी इश्क़ कहते हो? तुम बड़े मुहज़्ज़ब हो...
तुम रात हो शांत अँधेरी रात और मैं दहकता सूरज तुम में है मेरी कमी तुम्हे है मेरी ज़रूरत मगर... मगर मेरे होने पर तुम नहीं रहोगी तुम सो अच्छा यही होगा कि मैं किसी चाँद को करूँ दूर से रौशन तुम्हारे लिए...
मैं अब उकता गया हूँ इन झूठी कविताओं से इनमें नहीं है सच्ची पीड़ा नही है कोई भी सत्य भाव सियाही से कागज़ पर लिखी गयी हर कविता अभिनय मात्र हैं उस पीड़ा का जो अभिनेता ने कभी भोगा ही नहीं
मैं पढ़ना चाहता हूं सच्ची कविता जो हरखू की पीठ पर लिखी थी मालिक के चाबुक ने जो राधा के शराबी पति ने लिखी थी उसके हर अंग पर अपनी बेल्ट से जो हर रोज़ स्कूल का मास्टर लिखता है मासूम बच्चों की कोमल हथेली पर अपनी छड़ी से
मुझे कोफ्त होने लगी है उस बनावटी कविता से जो मंच के बड़े बड़े लाऊड स्पीकर जनता के कानों पर हर रोज़ लिख रहे हैं मैं पढ़ना चाहता हूँ वो जीवंत कविता जो पुलिस की लाठियों ने सड़को पे लिखी जो झांकती है बेरोजगार लड़को के फूटे हुए सर से जो कविता स्कूल जाती बच्चियों के मन पे लिखी है चौराहो पे खड़े कुंठित मर्दाना होठों ने जो कविता है चीखों को ख़ुद में समेटे जो कविता हर इक दिन लिखी जा रही है
कई रातें वहां बेडरूम में बैठी हुई हैं न सोती हैं न कुछ कहती हैं बैठी घूरती हैं कभी दीवार पर चिपकी अकेली छिपकली को कभी पंखे के ऊपर जाल बुनती मकड़ियों को किताबें फर्श पर मुर्दा पड़ी हैं और उनके पास कई मिसरे कई किरदार बैठे रो रहे हैं
हैं कुछ बेचैनियां जो बालकनी में ही खड़ी हैं अजब सी इक रिदम में सांस भरती छोड़ती सी कई खुदकुश ख़यालों ने वहीं डेरा किया है मगर इक आस उनको कूदने से रोकती है
किचेन के सिंक में बैठी है इक बासी सी बदबू किसी को भी वहाँ आने से भरसक रोकती है मगर इक प्यास आ जाती है फ्रिज तक रेंगती सी जो डूबी घूंट भर पानी में तिल तिल मर रही है
है इक अफ़सुर्दगी जो सारे घर में घूमती है कभी बेचैनियों से मिलके सीना पीटती है कभी रोती है यादों के गले लग कर सिसक कर कभी दालान में जाकर के सिगरेट फूंकती है
मैं पूरे घर को बैठा देखता हूँ एक कोने से गया इक शख़्स और घर में मेरे मजमा लगा है