23 MAY 2017 AT 0:37

इनायतों में उनकी अंदाज़े बोलती हैं,
रूहानियत में उनकी आगाज़ें बोलती हैं।

विलादत में हम होश खो बैठे यूँ अब,
कि आब-शार के दीदार में नियाज़ें बोलती हैं।

सितमगर जो न लग पाए तबस्सुम में,
उस मौसम के इंतज़ार में गुदाज़ें बोलती हैं।

खैर तो मोहतरमा की नफ़स साहिर सी है,
लेकिन हर हर्फ़ में सबा की ऐजाज़ें बोलती हैं।

दिखता तो हर आईने में चेहरा पूरा है,
कहीं बेबसी की रुसवाई में मजाज़ें बोलती हैं।

ख़्यालों में यूँ तो गुम है कहीं कलम मेरी,
जो स्याह रातों में उसके लिए बहे, वो राज़ें बोलती हैं।

तरन्नुम ने न देखा परवाने को आँखें बचा कर,
छिपती छिपाती गुलज़ार की आवाज़ें बोलती हैं।

- सौरभ