साईं बाबा की पूजा करने वाले लोग यह कुतर्क करते हैं कि जब भगवान् सर्वत्र हैं तो साईं की मूर्ति में भी हैं। ऐसे में साईं की पूजा भगवान् मानकर करने में क्या आपत्ति है ? मैं कहता हूँ, ऐसे तो फिर भगवान् विष्ठा और विष में भी हैं किन्तु भक्षण तो तुम पुष्ट अन्न का ही करते हो, विष्ठा-विषादि का नहीं। उस समय तुम्हारी बुद्धि कहाँ चली जाती है ? मूर्ति खाती नहीं दिखती, चलती नहीं दिखती, अपने सामने रखे प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकती, इसीलिए मूर्तिपूजा पाखण्ड है, ऐसा कहने वाले आर्य समाजी भी दयानन्द की मूर्ति बनाते रहते हैं। शास्त्रों में मूर्ति के अर्चाविधान में यह तो वर्णित नहीं कि मूर्ति का ईश्वरत्व उसके द्वारा प्रत्यक्ष भक्षण और गमन आदि क्रियाओं पर आश्रित है। साथ ही, जिन कृत्यों को प्रत्यक्षतः न करने से ये मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, उन्हीं भक्षण, गमन, रक्षण आदि कृत्यों को यदि मैं करता हूँ तो क्या ये मुझे अपना आराध्य मान लेंगे ?
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
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