कौन सुनता है
वो आवाज़ जो तेरे दिल से आती है,
बिछा कर चद्दर बैचेनी की, जो तेरे भीतर आग लगाती है
आखिर कौन सुनता है
धीमी सी समंदर की लहरें, जब अपने रंग में आती है,
बेकाबू पवन की मनमानी पत्तों को बिखेर जाती है,
तब किये गये गुनाह की तरफ़दारी, आखिर कौन सुनता है
वो सुनी शाम का गहरा सन्नाटा, जब खालीपन से चिल्लाता है,
लेखक की कविताओं से परे, जो दिखे चाँद का दाग काला तुम्हें
तो तुम्हारी नज़रो का धोखा बताकर, सच का ये मुहावरा
आखिर कौन सुनता है
तुम तो यूहीं सम्भलकर चलते हो, टूटे रास्तों पे बिना बैसाखी दौड़ते हो,
लगे जो खंजर और कांटे कई, न मुस्कुराना छोड़ तुम मंज़िल की ओर भागते हो,
तो
तो समझो कि तम्हारी यही तैयारी उस खुदा को भाती है, उसकी दुआएं जीत के संग हार का जश्न भी मनाती है, तुम्हें और बेहतर और मजबूत बनाती है, वो है आशीष उस ईश का मेरे बंदे जो तेरी हर पुकार उसके पास पहुंचाती है।
इसीलिए कहते है कि
कोई सुने ना सुने, वो सब सुनता है
जो तेरे भीतर, तुझे तुझसे भी ज़्यादा जनता है।
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