बेटियाँ बड़ी हो जाती थी ,
ढकते ,ढांकते ,छुपते ,छुपाते |
कुम्हलाई सी ही विदा कर दी जाती थी |
करती रहती थी लुके ,छिपे ही कितने सृजन ,
कितनी रचनाये लिखती रहती थी माटी पर
पैरो की नखों से ,
वो उस चाँद सी रहती थी जो बादलो के पीछे से
हरदम झाँका करता है।
वो बाहर की दुनिया से बेखबर
बुनती रहती थी सलाइयों पर अपने मन के रंगो के ताने बाने।
उनके सपनों की उड़ान भी उनके छतो जितनी ही ऊँची थीं ।
- सीमा
बेटियाँ - part-1
- सीmaa